प्राचीन भारतीय और पुरातत्व इतिहास >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहाससरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- क्या प्राचीन राज्य धर्म आधारित राज्य थे? वर्णन कीजिए।
उत्तर-
प्राचीन भारतीय समाज एवं संस्कृति में राज्य का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है और सभी सामाजिक संस्थायें धर्म से प्रभावित रही हैं। अतः राज्य पर भी धर्म का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। किन्तु इसके बावजूद भारतीय राज्य धर्मतन्त्रात्मक नहीं कहा जा सकता। धर्मतन्त्र में राजा का स्वामी धर्मगुरु ही होता है तथा राजा को उसके आधीन कार्य करना पड़ता है। आठवीं नवीं शती में इस प्रकार के राज्य यूरोप में विद्यमान थे जिसके शासक पोप तथा बिशप के अधीन होते थे। वह राजा को धर्मच्युत होने पर दण्डित कर सकता था। पोप की आज्ञायें, राजाज्ञाओं के ऊपर मानी जाती थीं। ऐसा माना जाता था कि राजाज्ञा मात्र भौतिक जगत तक ही सीमित है जबकि पोप की आज्ञा का सम्बन्ध भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों लोकों से है।
प्राचीन भारतीय साहित्य में कुछ ऐसे स्थल हैं जिनके आधार पर राज्य संस्था के ऊपर धर्म का प्रभाव सिद्ध करने का प्रयास किया गया है। ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है कि यदि राजा के पास योग्य पुरोहित 'नहीं होता तो देवता उसकी आहुति स्वीकार नहीं करते हैं। राज्याभिषेक के समय राजा ब्राह्मण पुरोहित के आगे तीन बार मस्तक झुकाकर उसकी अधीनता स्वीकार करता है। जब तक वह ऐसा करता है अर्थात् ब्राह्मण के अधीन रहता है उसके राज्य की उन्नति होती है। ऋग्वेद में एक स्थान पर वर्णन मिलता है कि अपने ब्राह्मण पुरोहित का सम्मान करने वाले राजा के वश में उसकी प्रजा रहती है तथा वही अपने शत्रुओं के ऊपर विजय भी प्राप्त करता है। गौतम धर्मसूत्र का मत है कि राजा की उन्नति तभी सम्भव है जब वह ब्राह्मण पुरोहित का सम्मान करे तथा उसकी सहायता प्राप्त करे।
इस प्रकार कुछ प्रारम्भिक उल्लेखों से पता चलता है कि पुरोहित वर्ग का राज्य शासन के ऊपर प्रभाव था। किन्तु ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं जो इस बात की सूचना देते हैं कि अनेक राजा पुरोहितों के प्रभाव को स्वीकार नहीं करते थे। अथर्ववेद में एक स्थान पर ब्राह्मण की गौवें छीनने वाले राजा के प्रति घोर निन्दा व्यक्त की गयी है। किन्तु भारतीय इतिहास में पुरोहितों तथा शासकों के बीच संघर्ष का उदाहरण प्रायः नहीं मिलते हैं। प्राचीन साहित्य में भी कुछ ऐसे उल्लेख हैं जिनसे पुरोहित के ऊपर राजा का अधिकार सिद्ध होता है। प्राचीन शास्त्रों में ब्राह्मणों को दण्ड मुक्ति का जो विशेषाधिकार प्रदान किया गया है वह सिद्धान्त रूप में ही अधिक था, व्यवहार में कम।
मौर्यकाल तक आते-आते राजनीति ने समाज में स्वतन्त्र स्थान प्राप्त कर लिया तथा राजशासन के ऊपर ग्रन्थों का प्रणयन हुआ। अतः राजा की स्थिति सर्वोच्च हो गयी तथा धर्मतन्त्र का प्रभाव नगण्य हो गया। अर्थशास्त्र में स्पष्टतः कहा गया है कि राजशासन धर्म, व्यवहार तथा चरित्र इन तीनों से श्रेष्ठ होता है। भारतीय राजतन्त्र धर्मतन्त्र नहीं था। धर्म केवल एक नैतिक शक्ति था। प्राचीन व्यवस्थाकारों ने सिद्धान्त रूप में धर्म की प्रभुसत्ता को भले ही स्वीकार किया हो किन्तु व्यवहार में ऐसी कोई भी संस्था नहीं थी जो धर्म का अतिक्रमण करने वाले राजा को नियन्त्रित कर सकती। यह सदैव कार्य करने का नैतिक दार्शनिक प्रतिमान बना रहा किन्तु कभी भी इसकी कल्पना सर्वोच्च राजनैतिक सत्ता के रूप में नहीं की गयी।
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